• रामचरितमानस

रामचरितमानस ( अंग्रेज़ी : Ramcharitmanas ) तुलसीदास की सबसे प्रमुख कृति है। इसकी रचना संवत 1631 ई. की रामनवमी को अयोध्या में प्रारम्भ हुई थी किन्तु इसका कुछ अंश काशी (वाराणसी) में भी निर्मित हुआ था, यह इसके किष्किन्धा काण्ड के प्रारम्भ में आने वाले एक सोरठे से निकलती है, उसमें काशी सेवन का उल्लेख है। इसकी समाप्ति संवत 1633 ई. की मार्गशीर्ष, शुक्ल 5, रविवार को हुई थी किन्तु उक्त तिथि गणना से शुद्ध नहीं ठहरती, इसलिए विश्वसनीय नहीं कही जा सकती। यह रचना अवधी बोली में लिखी गयी है। इसके मुख्य छन्द चौपाई और दोहा हैं, बीच-बीच में कुछ अन्य प्रकार के भी छन्दों का प्रयोग हुआ है। प्राय: 8 या अधिक अर्द्धलियों के बाद दोहा होता है और इन दोहों के साथ कड़वक संख्या दी गयी है। इस प्रकार के समस्त कड़वकों की संख्या 1074 है।

रामचरितमानस चरित-काव्य

'रामचरितमानस' एक चरित-काव्य है, जिसमें राम का सम्पूर्ण जीवन-चरित वर्णित हुआ है। इसमें 'चरित' और 'काव्य' दोनों के गुण समान रूप से मिलते हैं। इस काव्य के चरितनायक कवि के आराध्य भी हैं, इसलिए वह 'चरित' और 'काव्य' होने के साथ-साथ कवि की भक्ति का प्रतीक भी है। रचना के इन तीनों रूपों में उसका विवरण इस प्रकार है-

संक्षिप्त कथा

'रामचरितमानस' की कथा संक्षेप में इस प्रकार है- दक्षों से लंका को जीतकर राक्षसराज रावण वहाँ राज्य करने लगा। उसके अनाचारों-अत्याचारों से पृथ्वी त्रस्त हो गयी और वह देवताओं की शरण में गयी। इन सब ने मिलकर हरि की स्तुति की, जिसके उत्तर में आकाशवाणी हुई कि हरि दशरथ- कौशल्या के पुत्र राम के रूप में अयोध्या में अवतार ग्रहण करेंगे और राक्षसों का नाश कर भूमि-भार हरण करेंगे। इस आश्वासन के अनुसार चैत्र के शुक्ल पक्ष की नवमी को हरि ने कौशल्या के पुत्र के रूप में अवतार धारण किया। दशरथ की दो रानियाँ और थीं- कैकेयी और सुमित्रा । उनसे दशरथ के तीन और पुत्रों- भरत , लक्ष्मण और शत्रुघ्न ने जन्म ग्रहण किया।

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विश्वामित्र के आश्रम में राम

इस समय राक्षसों का अत्याचार उत्तर भारत में भी कुछ क्षेत्रों में प्रारम्भ हो गया था, जिसके कारण मुनि विश्वामित्र यज्ञ नहीं कर पा रहे थे। उन्हें जब यह ज्ञात हुआ कि दशरथ के पुत्र राम के रूप में हरि अवतरित हुए हैं, वे अयोध्या आये और जब राम बालक ही थे, उन्होंने राक्षसों के दमन के लिए दशरथ से राम की याचना की। राम तथा लक्ष्मण की सहायता से उन्होंने अपना यज्ञ पूरा किया। इन उपद्रवकारी राक्षसों में से एक सुबाहु था, जो मारा गया और दूसरा मारीच था, जो राम के बाणों से आहत होकर सौ योजन की दूरी पर समुद्र के पार चला गया। जिस समय राम-लक्ष्मण विश्वामित्र के आश्रम में रह रहे थे, मिथिला में धनुर्यज्ञ का आयोजन किया गया था, जिसके लिए मुनि को निमन्त्रण प्राप्त हुआ। अत: मुनि राम-लक्ष्मण को लेकर मिथिला गये। मिथिला के राजा जनक ने देश-विदेश के समस्त राजाओं को अपनी पुत्री सीता के स्वयंवर हेतु आमन्त्रित किया था। रावण और बाणासुर जैसे बलशाली राक्षस नरेश भी इस आमन्त्रण पर वहाँ गये थे किन्तु अपने को इस कार्य के लिए असमर्थ मानकर लौट चुके थे। दूसरे राजाओं ने सम्मिलित होकर भी इसे तोड़ने का प्रयत्न किया, किन्तु वे अकृत कार्य रहे। राम ने इसे सहज ही तोड़ दिया और सीता का वरण किया। विवाह के अवसर पर अयोध्या निमन्त्रण भेजा गया। दशरथ अपने शेष पुत्रों के साथ बारात लेकर मिथिला आये और विवाह के अनन्तर अपने चारों पुत्रों को लेकर अयोध्या लौटे।

कैकेयी और कोपभवन

दशरथ की अवस्था धीरे-धीरे ढलने लगी थी, इसलिए उन्होंने राम को अपना युवराज पद देना चाहा। संयोग से इस समय कैकेयी-पुत्र भरत सुमित्रा-पुत्र शत्रुघ्न के साथ ननिहाल गये हुए थे। कैकेयी की एक दासी मन्थरा को जब यह समाचार ज्ञात हुआ, उसने कैकेयी को सुनाया। पहले तो कैकेयी ने यह कहकर उसका अनुमोदन किया कि पिता के अनेक पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र ही राज्य का अधिकारी होता है, यह उसके राजकुल की परम्परा है किन्तु मन्थरा के यह सुझाने पर कि भरत की अनुपस्थिति में जो यह आयोजन किया जा रहा है, उसमें कोई दुरभि-सन्धि है, कैकेयी ने उस आयोजन को विफल बनाने का निश्चय किया और कोप भवन में चली गयी। तदनन्तर उसने दशरथ से, उनके मनाने पर, दो वर देने के लिए वचन; एक से राम के लिए 14 वर्षों का वनवास और दूसरे से भरत के लिए युवराज पद माँग लिये। इनमें से प्रथम वचन के अनुसार राम ने वन के लिए प्रस्थान किया तो उनके साथ सीता और लक्ष्मण ने भी वन के लिए प्रस्थान किया। कुछ ही दिनों बाद जब दशरथ ने राम के विरह में शरीर त्याग दिया, भरत ननिहाल से बुलाये गये और उन्हें अयोध्या का सिंहासन दिया गया, किन्तु भरत ने उसे स्वीकार नहीं किया और वे राम को वापस लाने के लिए चित्रकूट जा पहुँचे, जहाँ उस समय राम निवास कर रहे थे किन्तु राम ने लौटना स्वीकार न किया। भरत के अनुरोध पर उन्होंने अपनी चरण-पादुकाएँ उन्हें दे दीं, जिन्हें अयोध्या लाकर भरत ने सिंहासन पर रखा और वे राज्य का कार्य देखने लगे। चित्रकूट से चलकर राम दक्षिण के जंगलों की ओर बढ़े। जब वे पंचवटी में निवास कर रहे थे रावण की एक भगिनी शूर्पणखा एक मनोहर रूप धारण कर वहाँ आयी और राम के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर उनसे विवाह का प्रस्ताव किया। राम ने जब इसे अस्वीकार किया तो उसने अपना भयंकर रूप प्रकट किया। यह देखकर राम के संकेतों से लक्ष्मण ने उसके नाक-कान काट लिये। इस प्रकार कुरूप की हुई शूर्पणखा अपने भाइयों- खर और दूषण के पास गयी और उन्हें राम से युद्ध करने को प्रेरित किया। खर-दूषण ने अपनी सेना लेकर राम पर आक्रमण कर दिया किन्तु वे अपनी समस्त सेना के साथ युद्ध में मारे गये। तदनन्तर शूर्पणखा रावण के पास गयी और उसने उसे सारी घटना सुनायी। रावण ने मारीच की सहायता से, जिसे विश्वामित्र के आश्रम में राम ने युद्ध में आहत किया था, सीता का हरण किया, जिसके परिणामस्वरूप राम को रावण से युद्ध करना पड़ा।

राम और रावण युद्ध

इस परिस्थिति में राम ने किष्किन्धा के वानरों की सहायता ली और रावण पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण के साथ रावण का भाई विभीषण भी आकर राम के साथ हो गया। राम ने अंगद नाम के वानर को रावण के पास दूत के रूप में अन्तिम बार सावधान करने के लिए भेजा कि वह सीता को लौटा दे, किन्तु रावण ने अपने अभिमान के बल से इसे स्वीकार नहीं किया और राम तथा रावण के दलों में युद्ध छिड़ गया। उस महायुद्ध में रावण तथा उसके बन्धु-बान्धव मारे गये। तदनन्तर लंका का राज्य उसके भाई विभीषण को देकर सीता को साथ लेकर राम और लक्ष्मण अयोध्या वापस आये। राम का राज्याभिषेक किया गया और दीर्घकाल तक उन्होंने प्रजारंजन करते हुए शासन किया। इस मूल कथा के पूर्व 'रामचरितमानस' में रावण के कुछ पूर्वभवों की तथा राम के कुछ पूर्ववर्ती अवतारों की कथाएँ हैं, जो संक्षेप में दी गयी है। कथा के अन्त में गरुड़ और काग भुशुण्डि का एक विस्तृत संवाद है, जिसमें अनेक प्रकार के आध्यात्मिक विषयों का विवेचन हुआ है। कथा के प्रारम्भ होने के पूर्व शिव-चरित्र, शिव- पार्वती संवाद, याज्ञवलक्य- भारद्वाज संवाद तथा काग भुशुण्डि- गरुड़ संवाद के रूप में कथा की भूमिकाएँ हैं। और उनके भी पूर्व कवि की भूमिका और प्रस्तावना है।

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'चरित' की दृष्टि से यह रचना पर्याप्त सफल हुई है। इसमें राम के जीवन की समस्त घटनाएँ आवश्यक विस्तार के साथ एक पूर्वाकार की कथाओं से लेकर राम के राज्य-वर्णन तक कवि ने कोई भी प्रासंगिक कथा रचना में नहीं आने दी है। इस सम्बन्ध में यदि वाल्मीकीय तथा अन्य अधिकतर राम-कथा ग्रन्थों से 'रामचरितमानस' की तुलना की जाय तो तुलसीदास की विशेषता प्रमाणित होगी। अन्य रामकथा ग्रन्थों में बीच-बीच में कुछ प्रासंगिक कथाएँ देखकर अनेक क्षेपककारों ने 'रामचरितमानस' में प्रक्षिप्त प्रसंग रखे और कथाएँ मिलायीं, किन्तु राम-कथा के पाठकों ने उन्हें स्वीकार नहीं किया और वे रचना को मूल रूप में ही पढ़ते और उसका पारायण करते हैं। चरित-काव्यों की एक बड़ी विशेषता उनकी सहज और प्रयासहीन शैली मानी गयी है, और इस दृष्टि से 'मानस' एक अत्यन्त सफल चरित है। रचना भर में तुलसीदास ने कहीं भी अपना काव्य कौशल, अपना पाण्डित्य, अपनी बहुज्ञता आदि के प्रदर्शन का कोई प्रयास नहीं किया है। सर्वत्र वे अपने वर्ण्य विषय में इतने तन्मय रहे हैं कि उन्हें अपना ध्यान नहीं रहा। रचना को पढ़कर ऐसा लगता है कि राम के चरित ने ही उन्हें वह वाणी प्रदान की है, जिसके द्वारा वे सुन्दर कृति का निर्माण कर सके।

उत्कृष्ट महाकाव्य

'काव्य' की दृष्टि से 'रामचरितमानस' एक अति उत्कृष्ट महाकाव्य है। भारतीय साहित्य-शास्त्र में 'महाकाव्य' के जितने लक्षण दिये गये हैं, वे उसमें पूर्ण रूप से पाये जाते हैं।

  • कथा-प्रबन्ध का सर्गबद्ध होना ,
  • उच्चकुल सम्भूत धीरोदात्त नायक का होना,
  • श्रृंगार , शान्त और वीर रसों में से किसी एक का उसका लक्ष्य होना आदि सभी लक्षण उसमें मिलते हैं। पाश्चात्य साहित्यालोचन में 'इपिक' की जो विभिन्न आवश्यकताएँ बतलायी गयी हैं, यथा- उसकी कथा का किसी गौरवपूर्ण अतीत से सम्बद्ध होना, अतिप्राकृत शक्तियों का उसकी कथा में भाग लेना, कथा के अन्त में किन्हीं आदर्शों की विजय का चित्रित होना आदि, सभी 'रामचरितमानस' में पाई जाती हैं। इस प्रकार किसी भी दृष्टि से देखा जाय तो 'रामचरितमानस' एक अत्यन्त उत्कृष्ट महाकाव्य ठहरता है। मुख्यत: यही कारण है कि संसार की महान् कृतियों में इसे भी स्थान मिला है।

रामचरितमानस में छन्दों की संख्या

रामचरितमानस में विविध छन्दों की संख्या निम्नवत है-

  • चौपाई – 9388
  • दोहा – 1172
  • श्लोक – 47 (अनुष्टुप्, शार्दूलविक्रीडित, वसन्ततिलका, वंशस्थ, उपजाति, प्रमाणिका, मालिनी, स्रग्धरा, रथोद्धता, भुजङ्गप्रयात, तोटक)
  • छन्द – 208 (हरिगीतिका, चौपैया, त्रिभङ्गी, तोमर)
  • कुल 10902 (चौपाई, दोहा, सोरठा, श्लोक, छन्द) [1]

तुलसीदास की भक्ति

तुलसीदास की भक्ति की अभिव्यक्ति भी इसमें अत्यन्त विशद रूप में हुई है। अपने आराध्य के सम्बन्ध में उन्होंने 'रामचरितमानस' और विनय-पत्रिका ' में अनेक बार कहा है कि उनके राम का चरित्र ही ऐसा है कि जो एक बार उसे सुन लेता है, वह अनायास उनका भक्त हो जाता है। वास्तव में तुलसीदास ने अपने आराध्य के चरित्र की ऐसी ही कल्पना की है। यही कारण है कि इसने समस्त उत्तरी भारत पर सदियों से अपना अद्भुत प्रभाव डाल रखा है और यहाँ के आध्यात्मिक जीवन का निर्माण किया है। घर-घर में 'रामचरितमानस' का पाठ पिछली साढ़े तीन शताब्दियों से बराबर होता आ रहा है। और इसे एक धर्म ग्रन्थ के रूप में देखा जाता है। इसके आधार पर गाँव-गाँव में प्रतिवर्ष रामलीलाओं का भी आयोजन किया जाता है। फलत: जैसा विदेशी विद्वानों ने भी स्वीकार किया है। उत्तरी भारत का यह सबसे लोकप्रिय ग्रन्थ है और इसने जीवन के समस्त क्षेत्रों में उच्चाशयता लाने में सफलता प्राप्त की है।

लोकप्रिय ग्रन्थ

यहाँ पर स्वभावत: यह प्रश्न उठता है कि तुलसीदास ने राम तथा उनके भक्तों के चरित्र में ऐसी कौन-सी विलक्षणता उपस्थित की है, जिससे उनकी इस कृति को इतनी अधिक लोकप्रियता प्राप्त हुई है। तुलसीदास की इस रचना में अनेक दुर्लभ गुण हैं किन्तु कदाचित अपने जिस महान् गुण के कारण इसने यह असाधारण सम्मान प्राप्त किया है, वह है ऐसी मानवता की कल्पना, जिसमें उदारता, क्षमा, त्याग, निवैरता, धैर्य और सहनशीलता आदि सामाजिक शिवत्व के गुण अपनी पराकाष्ठा के साथ मिलते हों और फिर भी जो अव्यावहारिक न हों। 'रामचरितमानस' के सर्वप्रमुख चरित्र-राम, भरत, सीता आदि इसी प्रकार के हैं। उदाहरण के लिए राम और कौशल्या के चरित्रों को देखते हैं-

  • 'वाल्मीकि रामायण' में राम जब वनवास का दु:संवाद सुनाने कौशल्या के पास आते हैं, वे कहते हैं: 'देवि, आप जानती नहीं हैं, आपके लिए, सीता के लिए और लक्ष्मण के लिए बड़ा भय आया है, इससे आप लोग दु:खी होंगे। अब मैं दण्डकारण्य जा रहा हूँ, इससे आप लोग दुखी होंगे। भोजन के निमित्त बैठने के लिए रखे गये इस आसन से मुझे क्या करना है? अब मेरे लिए कुशा आसन चाहिये, आसन नहीं। निर्जन वन में चौदह वर्षो तक निवास करूँगा। अब मैं कन्द मूल फल से जीविका चलाऊँगा। महाराज युवराज का पद भरत को दे रहे हैं और तपस्वी वेश में मुझे अरण्य भेज रहे है' [2] ।
  • ' अध्यात्म रामायण ' में राम ने इस प्रसंग में कहा है, 'माता मुझे भोजन करने का समय नहीं है, क्योंकि आज मेरे लिए यह समय शीघ्र ही दण्डकारण्य जाने के लिए निश्चित किया गया है। मेरे सत्य-प्रतिज्ञ पिता ने माता कैकेयी को वर देकर भरत को राज्य और मुझे अति उत्तम वनवास दिया। वहाँ मुनि वेश में चौदह वर्ष रहकर मैं शीघ्र ही लौट आऊँगा, आप किसी प्रकार की चिन्ता न करें।' [3]
  • 'रामचरितमानस' में यह प्रसंग इस प्रकार है-

"मातृ वचन सुनि अति अनुकूला। जनु सनेह सुरतरू के फूला।। सुख मकरन्द भरे श्रिय मूला। निरखि राम मन भंवरू न भूला।। धरम धुरीन धरम गनि जानी। कहेउ मातृ सन अमृत वानी।। पिता दीन्ह मोहिं कानन राजू। जहँ सब भाँति मोर बड़ काजू।। आयसु देहि मुदित मन माता। जेहिं मुद मंगल कानन जाता।। जनि सनेह बस डरपति मोरे। आबहुँ अम्ब अनुग्रह तोरे।।' [4]

तुलनात्मक अध्ययन

यहाँ पर दर्शनीय यह है कि तुलसीदास 'वाल्मीकि-रामायण' के राम को ग्रहण न कर 'अध्यात्म रामायण' के राम को ग्रहण किया है। वाल्मीकि के राम में भरत की ओर से अपने स्नेही स्वजनों के सम्बन्ध में जो अनिष्ट की आशंका है, वह 'अध्यात्म रामायण' के राम में नहीं रह गयी है और तुलसीदास के राम में भी नहीं आने पायी है किन्तु इसी प्रसंग में पिता की आज्ञा के प्रति लक्ष्मण के विद्रोह के शब्दों को सुनकर राम ने संसार की अनित्यता और देहादि से आत्मा की भिन्नता का एक लम्बा उपदेश दिया है [5] , जिस पर उन्होंने माता से नित्य विचार करने के लिए अनुरोध किया है, 'हे मात:! तुम भी मेरे इस कथन पर नित्य विचार करना और मेरे फिर मिलने की प्रतीक्षा करती रहना। तुम्हें अधिक काल तक दु:ख न होगा। कर्म-बन्धन में बँधे हुए जीवों का सदा एक ही साथ रहना-सहना नहीं हुआ करता, जैसे नदी के प्रवाह में पड़कर बहती हुई डोंगियाँ सदा साथ-साथ ही नहीं चलती' [6] ।

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व्यावहारिकता

तुलसीदास इस अध्यात्मवाद की दुहाई न देकर अपने आदर्शवाद को अव्यावहारिक होने से बचा लेते हैं। वे राम को एक धर्म-निष्ठ नायक के रूप में ही चित्रित करते हैं, जो पिता की आज्ञा का पालन करना अपना एक परम पुनीत कर्तव्य समझता है, इसलिए उन्होंने कहा है:

'धरम धुरीन धरम गतिजानी। कहेउ मातु सन अति मृदु बानी।।'

दूसरा प्रसंग

वनवास के दु:ख संवाद को जब राम सीता को सुनाने जाते हैं,

  • 'वाल्मीकीय रामायण' में वे कहते हैं: "मैं निर्जन वन में जाने के लिए प्रस्तुत हुआ हूँ और तुमसे मिलने के लिए यहाँ आया हूँ। तुम भरत के सामने मेरी प्रशंसा न करना, क्योंकि समृद्धिवान लोग दूसरों की स्तुति नहीं सह सकते, इसलिए भरत के सामने तुम मेरे गुणों का वर्णन न करना। भरत के आने पर तुम मुझे श्रेष्ठ न बतलाना, ऐसा करना भरत के प्रतिकूल आचरण कहा जायेगा और अनुकूल रहकर ही भरत के पास रहना सम्भव हो सकता है। परम्परागत राज्य राजा ने भरत को ही दिया है: तुमको चाहिये कि तुम उसे प्रसन्न रखो, क्योंकि वह राजा है" [7]
  • 'अध्यात्म रामायण' में इस प्रसंग में राम ने इतना ही कहा है, हे शुभे! मैं शीघ्र ही उसका प्रबन्ध करने के लिए वहाँ जाऊँगा। मैं आज ही वन को जा रहा हूँ। तुम अपनी सासू के पास जाकर उनकी सेवा-शुश्रुषा में रहो। मैं झूठ नहीं बोलता।...हे अनघे! महाराज ने प्रसन्नतापूर्वक कैकयी को वर देकर भरत को राज्य और मुझे वनवास दिया है। देवी कैकेयी ने भरत को राज्य और मुझे वनवास दिया हैं। देवी कैकेयी ने मेरे लिए चौदह वर्ष तक वन में रहना माँगा था, सो सत्यवादी दयालु महाराज ने देना स्वीकार कर लिया है। अत: हे भामिनि! मैं वहाँ शीघ्र ही जाऊँगा, तुम इसमें किसी प्रकार का विघ्न न खड़ा करना। [8]
  • 'रामचरितमानस' में इस प्रकार सीता से विदा लेने गये हुए राम नहीं दिखलाये जाते हैं, इसमें सीता स्वयं कौशल्या के पास उस समय वनवास का समाचार सुनकर आ जाती हैं, जब राम कौशल्या से वन गमन की आज्ञा लेने के लिए आते हैं और सीता की राम के साथ वन जाने की इच्छा समझकर कौशल्या ही राम से उनकी इच्छा का निवेदन करती हैं। 'अध्यात्म रामायण' में ही भरत के प्रति किसी प्रकार की आशंका और सन्देह के भाव राम के मन में नहीं चित्रित किये गये, 'रामचरितमानस' में भी राम के उसी उदार व्यक्तित्व को अंकित किया गया है।

तुलसीदास राम के चरित्र में भरत प्रेम का एक अद्भुत विकास करते हैं, जो अन्य राम-कथा ग्रन्थों में नहीं मिलता। उदाहरणार्थ-

  • चित्रकूट में राम के रहन-सहन का वर्णन करते हुए वे कहते है-

"जब-जब राम अवध सुधि करहीं। तब-तब बारि बिलोचन भरहीं। सुमिरि मातु पितु परिजन भाई। भरत सनेह सील सेवकाई। कृपासिन्धु प्रभु होहिं दुखारी। धीरज धरहिं कुसमय बिचारी॥' [9]

  • भरत के आगमन का समाचार सुनकर लक्ष्मण जब राम के अनिष्ट की आशंका से उनके विरुद्ध उत्तेजित हो उठते हैं, राम कहते हैं-

'कहीं तात तुम्ह नीति सुनाई। सबतें कठिन राजमद भाई॥ जो अँचवत मातहिं नृपतेई। नाहिंन साधु समाजिहिं सेई॥ सुनहु लषन भल भरत सरीखा। विधि प्रपंच महँ सुना न दीषा॥ भरतहिं होई न राज मद, विधि हरिहर पद पाइ। कबहुँ कि कांजी सीकरनि छीर सिन्धु बिनसाइ॥ तिमिर तरून तरिनिहि मकु गिलई। गगन मगन मकु मेघहि मिलई॥ गोपद जल बूड़ति घट जोनी। सहज क्षमा बरू छाड़इ छोनी॥ मसक फूँक मकु मेरू उड़ाई। होइ न नृप पद भरतहि भाई॥ लषन तुम्हार सपथ पितु आना। सुचि सुबन्धु नहिं भरत समाना॥ सगुन क्षीर अवगुन जल ताता। मिलइ रचइ परपंच विधाता॥ भरत हंस रवि बंस तड़ागा। जनमि लीन्ह गुन शेष विभागा॥ गहि गुन पय तजि अवगुन बारी। निज जस जगत कीन्ह उजियारी॥ कहत भरत सुन सील सुभाऊ। प्रेम पयोधि मगन रघुराऊ॥" [10]

  • चित्रकूट में भरत की विनय सुनने के लिए किये गये वशिष्ठ के कथन पर राम कह उठते हैं-

"गुरु अनुराग भरत पर देखी। राम हृदय आनन्द विसेषी॥ भरतहिं धरम धुरन्धर जानी।। निज सेवक तन मानस बानी॥ बोले गुरु आयसु अनुकूला। बचन मंजु मृदु मंगल मूला॥ नाथ सपथ पितु चरन दोहाई। भयउ न भुवन भरत सन भाई॥ जो गुरु पर अंबुज अनुरागी। ते लोक हूं वेदहुं बड़ भागी॥ लखि लघु बन्धु बुद्धि सकुचाई। करत बदन पर भरत बड़ाई॥ भरत कहहिं सोइ किये भलाई। अस कहि राम रहे अरगाई॥" [11]

ये तीनों विस्तार मौलिक हैं और 'रामचरितमानस' के पूर्व किसी राम-कथा ग्रन्थ में नहीं मिलते। भरत के प्रति राम के प्रेम का यह विकास तुलसीदास की विशेषता है और पूरे 'रामचरितमानस' में उन्होंने इसका निर्वाह भली भांति किया है। भरत ननिहाल से लौटते हैं तो कौशल्या से उनसे मिलने के लिए दौड़ पड़ती हैं और उनके स्तनों से दूध की धारा बहने लगती है। [12] राम-माता का यह चित्र 'अध्यात्म रामायण' में भी नहीं है, यद्यपि उसमें भरत के प्रति कौसल्या की वह संकीर्ण-हृदयता भी नहीं है, जो 'वाल्मीकि रामायण' में पायी जाती है। 'वाल्मीकि-रामायण' में तो कौशल्या भरत से कहती हैं, 'यह शत्रुहीन राज्य तुम को मिला, तुमने राज्य चाहा और वह तुम्हें मिला। कैकेयी ने बड़े ही निन्दित कर्म के द्वारा इस राज्य को राजा से पाया है.. धन-धान्य से युक्त हाथी, घोड़ों और रथों से पूर्ण यह विशाल राज्य कैकेयी ने राजा से लेकर तुमको दे दिया है।" इस प्रकार अनेक कठोर वचनों से कौशल्या ने भरत का तिरस्कार किया, जिनसे वे घाव में सुई छेदने के समान पीड़ा से दुखी हुए। [13]

रामचरितमानस की लोकप्रियता

इसी प्रकार भरत , सीता , कैकेयी और कथा के अन्य प्रमुख पात्रों में भी तुलसीदास ने ऐसे सुधार किये हैं कि वे सर्वथा तुलसीदास के हो गये हैं। इन चरित्रों में मानवता का जो निष्कलुष किन्तु व्यावहारिक रूप प्रस्तुत किया गया है, वह न केवल तत्कालीन साहित्य में नहीं आया, तुलसी के पूर्व राम-साहित्य में भी नहीं दिखाई पड़ा। कदाचित इसलिए तुलसीदास के 'रामचरितमानस' ने वह लोकप्रियता प्राप्त की, जो तब से आज तक किसी अन्य कृति को नहीं प्राप्त हो सकी। भविष्य में भी इसकी लोकप्रियता में अधिक अन्तर न आयेगा, दृढ़तापूर्वक यह कहना तो किसी के लिए भी असम्भव होगा किन्तु जिस समय तक मानव जाति आदर्शों और जीवन-मूल्यों में विश्वास रखेगी, 'रामचरितमानस' को सम्मानपूर्वक स्मरण किया जाता रहेगा, यह कहने के लिए कदाचित किसी भविष्यत-वक्ता की आवश्यकता नहीं है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  • ↑ श्रीरामचरितमानस में छन्द (हिन्दी) (html) श्री रामचरित (RamCharit.in)। अभिगमन तिथि: 19 मई, 2016।
  • ↑ वाल्मीकि रामायण(2-20-25-30
  • ↑ अध्यात्म रामायण(2-4-4-6
  • ↑ रामचरितमानस(2-53-3-8
  • ↑ रामचरितमानस(2-4-17-44
  • ↑ रामचरितमानस(2।4।44-46
  • ↑ वाल्मीकीय रामायण(2।25।24-27
  • ↑ अध्यात्म रामायण (2. 4-57-62
  • ↑ रामचरितमानस(2. 141. 3-5
  • ↑ रामचरितमानस(2,231,6, से 2, 232, 8 तक
  • ↑ रामचरितमानस(2. 249, 1-8

सरल सुभाय माय हिय लाये। अति हित मनहुँ राम फिर आये॥ भेटउ बहुरि लषन लघु भाई। सोक सनेह न हृदय समाई॥

देखि सुभाउ कहत सब कोई। राम मातु अस काहे न होई॥"रामचरितमानस(2,164, 1-2, 165,3

  • ↑ वाल्मीकि-रामायण(2, 75, 10-17

बाहरी कड़ियाँ

  • श्री रामचरितमानस
  • श्रीरामचरितमानस

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5 Reasons to Read Ramcharitmanas by Goswami Tulsidas

I picked up Ramcharitmanas By Goswami Tulsidas to read as part of my effort to read original Indian literature. We all know a million interpretations, commentaries, derivative work that has been published on the two epics of India – Ramayana, and Mahabharata. So, I started by reading the Raghuvamsam by Kalidasa . This was the next scripture I picked up primarily as I thought it is huge but should be easy to read.

Ramcharitmanas by Tulsidas in Hindi

Sharing my learnings of reading this epic, in original.

If I can read it, You can read it

The Gita Press version I have of Ramcharitmanas is 1100 pages long. It has Awadhi and occasional Sanskrit verses, and each of them has immediate Hindi Translation. When I started, it did look like a daunting task.

My back of the envelope calculations predicted 3+ years to complete the book. However, once I got hold of the language, it was easy and the flow set in. I would get up in the morning, read my few pages and then start my day.

For anyone who understands Hindi, Awadhi is not very difficult. Once you figure out the meaning of a few words, and the way familiar words are said in Awadhi, you would not need to refer to translation most of the times.

If I can read it while juggling all other things, you too can read it.

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Not Just the Story of Ram

While Ramcharitmanas is a story of Sri Ram, the book at different places highlights the different characters of the story. Before Ram is born in the story, there is a detailed description of Shiv-Parvati Vivaah or wedding. There are back stories to tell you like a prelude the various reasons for Vishnu to take birth in Ayodhya .

Ram-Janki Vivaah focusses on Ram and Lakshman. Bharat Milaap focusses totally on Bharat and builds up his character. Sundar Kand is all about Hanuman and a fair amount of ink is spent on showcasing the splendor of Ravana in Lanka .

Character sketch of different characters will make you relate them to someone or the other around you.

The story ends once Ram is back and Ram Rajya is established. I think the description of Ram Rajya in Ramcharitmanas is the most beautiful part of the book. It tells you the Utopian reality comes true when every element is in sync with the other. It sums it beautifully in verse when it says – when everyone works according to his Dharma and Varna, and when the world is free of Fear, disease & sorrows. I think it deserves an independent post in itself.

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Bursting the Myths

There are a lot of things we know about the story of Ramayana from popular retellings in different media. However, many of my myths were burst when I read the original. Like there is no mention of Lakshman Rekha in Aranya Kand, when Sita is abducted. Lakshman just tells the trees around to take care of her in his absence.

Laksham Rekha is vaguely mentioned by Mandodari in Lanka Kand when she taunts him that you could cross a line marked by Lakshman and you think you can deal with Ram. Rekha, if any was meant for Ravana to not cross and not Sita.

This version of Ramcharitmanas has no story of the expulsion of Sita from Ayodhya. Birth of Luv Kush is mentioned in a quarter of a verse, but nothing else. There is no mention of Ram leaving his body by entering Sarayu.

When the 3 queens of Dashrath go to meet Ram in the forest, he does not come to know from their looks that his father has passed away. The word widow never pops up. They are always called either queens or mothers.

Read More –  My Hanuman Chalisa by Devdutt Pattanaik

Story by Dialogues

Indian scriptures are all written as dialogues or conversations. This story of Ram in Ramcharitmanas is told as a conversation between Shiva & Parvati and between the crow Kak Bhushundi and Garuda. Tulsidas himself makes an appearance in between. Then there are dialogues between the Gurus in different ashrams and the students.

Living in Panchvati, there are curious dialogues between Ram and Lakshman on philosophical subjects like ‘What is Maya?’. While Ram and Lakshman wait for the monsoons to get over in Kishkindha, there is a monologue by Ram that compares the seasons to statecraft.

Towards the end, there are long discourses by Kak Bhushundi that wrap up the story with the lessons it leaves for the reader.

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Nuances of Indian Culture

The language carries the nuances of Indian culture. You will discover a lot that can never be translated. For example, when the Kevat takes Ram, Lakshman & Sita across Ganga and Sita tries to pay by giving her ring. He refuses by saying – main na lun teri utraai .

See the charges are for taking you to your destination and be given after you have reached your destination. Unlike the charges, we pay for boarding, irrespective of our motive of reaching a place being met or not.

Read More –  In search of Sita by Malashri Lal & Namita Gokhale

Why Read only the original Ramcharitmanas?

There are a million if not more retellings of Ramayana. In fact, this is also a 17th CE retelling of ancient Valmiki Ramayana that I hope to read soon.

Ramayana is a multi-layered story. The story of Ram avatar is a veneer to communicate a deeper understanding of human nature. Each reader will read their own angle. This, in fact, is the beauty of Indian scriptures. You can read them in so many different ways. The only way you can not read them is to read frivolously.

So, rather than read as it was read by someone else, or as someone imagined the unsaid parts of the story. Read it for yourself and make your own conclusions.

Go, Read It!

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Very nice summary. You can also buy the book directly from geeta press.org They have an online bookshop.

Namaskaram!

It has been in my mind for a long time since i heard your podcast. Would like to check with you if there are any specific rules that I need to follow or can i just read a page or two everyday?

Regards Ashwini

Just read 1-2 pages a day. No rules, except maybe sit in a clean place and treat the book with respect.

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श्रीरामचरितमानस - Shri Ramcharitmanas - Gita Press (Hindi)

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श्री गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज के द्वारा प्रणीत श्रीरामचरितमानस

Shri Ramcharitmanas Gita Press (Hindi) - Topic Wise PDF Bookmarks

श्रीरामचरितमानस निवेदन विषय-सूची नवाह्नपारायणके विश्राम-स्थान मासपारायणके विश्राम-स्थान पारायण-विधि

1. बाल-काण्ड 1. मंगलाचरण 2. गुरु वंदना 3. ब्राह्मण-संत वंदना 4. खल वंदना 5. संत-असंत वंदना 6. रामरूप से जीवमात्र की वंदना 7. तुलसीदासजी की दीनता और राम भक्तिमयी कविता की महिमा 8. कवि वंदना 9. वाल्मीकि, वेद, ब्रह्मा, देवता, शिव, पार्वती आदि की वंदना 10. श्री सीताराम-धाम-परिकर वंदना 11. श्री नाम वंदना और नाम महिमा 12. श्री रामगुण और श्री रामचरित्‌ की महिमा 13. मानस निर्माण की तिथि 14. मानस का रूपक और माहात्म्य 15. याज्ञवल्क्य-भरद्वाज संवाद तथा प्रयाग माहात्म्य 16. सती का भ्रम, श्री रामजी का ऐश्वर्य और सती का खेद 17. शिवजी द्वारा सती का त्याग, शिवजी की समाधि 18. सती का दक्ष यज्ञ में जाना 19. पति के अपमान से दुःखी होकर सती का योगाग्नि से जल जाना, दक्ष यज्ञ विध्वंस 20. पार्वती का जन्म और तपस्या 21. श्री रामजी का शिवजी से विवाह के लिए अनुरोध 22. सप्तर्षियों की परीक्षा में पार्वतीजी का महत्व 23. कामदेव का देवकार्य के लिए जाना और भस्म होना 24. रति को वरदान 25. देवताओं का शिवजी से ब्याह के लिए प्रार्थना करना, सप्तर्षियों का पार्वती के पास जाना 26. शिवजी की विचित्र बारात और विवाह की तैयारी 27. शिवजी का विवाह 28. शिव-पार्वती संवाद 29. अवतार के हेतु 30. नारद का अभिमान और माया का प्रभाव 31. विश्वमोहिनी का स्वयंवर, शिवगणों को तथा भगवान्‌ को शाप और नारद का मोहभंग 32. मनु-शतरूपा तप एवं वरदान 33. प्रतापभानु की कथा 34. रावणादिका जन्म, तपस्या और उनका ऐश्वर्य तथा अत्याचार 35. पृथ्वी और देवतादि की करुण पुकार 36. भगवान्‌ का वरदान 37. राजा दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ, रानियों का गर्भवती होना 38. श्री भगवान्‌ का प्राकट्य और बाललीला का आनंद 39. विश्वामित्र का राजा दशरथ से राम-लक्ष्मण को माँगना, ताड़का वध 40. विश्वामित्र-यज्ञ की रक्षा 41. अहल्या उद्धार 42. श्री राम-लक्ष्मण सहित विश्वामित्र का जनकपुर में प्रवेश 43. श्री राम-लक्ष्मण को देखकर जनकजी की प्रेम मुग्धता 44. श्री राम-लक्ष्मण का जनकपुर निरीक्षण 45. पुष्पवाटिका-निरीक्षण, सीताजी का प्रथम दर्शन, श्री सीता-रामजी का परस्पर दर्शन 46. श्री सीताजी का पार्वती पूजन एवं वरदान प्राप्ति तथा राम-लक्ष्मण संवाद 47. श्री राम-लक्ष्मण सहित विश्वामित्र का यज्ञशाला में प्रवेश 48. श्री सीताजी का यज्ञशाला में प्रवेश 49. बंदीजनों द्वारा जनकप्रतिज्ञा की घोषणा 50. राजाओं से धनुष न उठना, जनक की निराशाजनक वाणी 51. श्री लक्ष्मणजी का क्रोध 52. धनुषभंग 53. जयमाला पहनाना, परशुराम का आगमन व क्रोध 54. श्री राम-लक्ष्मण और परशुराम-संवाद 55. दशरथजी के पास जनकजी का दूत भेजना, अयोध्या से बारात का प्रस्थान 56. बारात का जनकपुर में आना और स्वागतादि 57. श्री सीता-राम विवाह, विदाई 58. बारात का अयोध्या लौटना और अयोध्या में आनंद 59. श्री रामचरित्‌ सुनने-गाने की महिमा

2. अयोध्या-काण्ड 1. मंगलाचरण 2. राम राज्याभिषेक की तैयारी, देवताओं की व्याकुलता तथा सरस्वती से उनकी प्रार्थना 3. सरस्वती का मन्थरा की बुद्धि फेरना, कैकेयी-मन्थरा संवाद, प्रजा में खुशी 4. कैकेयी का कोपभवन में जाना 5. दशरथ-कैकेयी संवाद और दशरथ शोक, सुमन्त्र का महल में जाना और वहाँ से लौटकर श्री रामजी को महल में भेजना 6. श्री राम-कैकेयी संवाद 7. श्री राम-दशरथ संवाद, अवधवासियों का विषाद, कैकेयी को समझाना 8. श्री राम-कौसल्या संवाद 9. श्री सीता-राम संवाद 10. श्री राम-कौसल्या-सीता संवाद 11. श्री राम-लक्ष्मण संवाद 12. श्री लक्ष्मण-सुमित्रा संवाद 13. श्री रामजी, लक्ष्मणजी, सीताजी का महाराज दशरथ के पास विदा माँगने जाना, दशरथजी का सीताजी को समझाना 14. श्री राम-सीता-लक्ष्मण का वन गमन और नगर निवासियों को सोए छोड़कर आगे बढ़ना 15. श्री राम का श्रृंगवेरपुर पहुँचना, निषाद के द्वारा सेवा 16. लक्ष्मण-निषाद संवाद, श्री राम-सीता से सुमन्त्र का संवाद, सुमंत्र का लौटना 17. केवट का प्रेम और गंगा पार जाना 18. प्रयाग पहुँचना, भरद्वाज संवाद, यमुनातीर निवासियों का प्रेम 19. तापस प्रकरण 20. यमुना को प्रणाम, वनवासियों का प्रेम 21. श्री राम-वाल्मीकि संवाद 22. चित्रकूट में निवास, कोल-भीलों के द्वारा सेवा 23. सुमन्त्र का अयोध्या को लौटना और सर्वत्र शोक देखना 24. दशरथ-सुमन्त्र संवाद, दशरथ मरण 25. मुनि वशिष्ठ का भरतजी को बुलाने के लिए दूत भेजना 26. श्री भरत-शत्रुघ्न का आगमन और शोक 27. भरत-कौसल्या संवाद और दशरथजी की अन्त्येष्टि क्रिया 28. वशिष्ठ-भरत संवाद, श्री रामजी को लाने के लिए चित्रकूट जाने की तैयारी 29. अयोध्यावासियों सहित श्री भरत-शत्रुघ्न आदि का वनगमन 30. निषाद की शंका और सावधानी 31. भरत-निषाद मिलन और संवाद और भरतजी का तथा नगरवासियों का प्रेम 32. भरतजी का प्रयाग जाना और भरत-भरद्वाज संवाद 33. भरद्वाज द्वारा भरत का सत्कार 34. इंद्र-बृहस्पति संवाद 35. भरतजी चित्रकूट के मार्ग में 36. श्री सीताजी का स्वप्न, श्री रामजी को कोल-किरातों द्वारा भरतजी के आगमन की सूचना, रामजी का शोक, लक्ष्मणजी का क्रोध 37. श्री रामजी का लक्ष्मणजी को समझाना एवं भरतजी की महिमा कहना 38. भरतजी का मन्दाकिनी स्नान, चित्रकूट में पहुँचना, भरतादि सबका परस्पर मिलाप, पिता का शोक और श्राद्ध 39. वनवासियों द्वारा भरतजी की मंडली का सत्कार, कैकेयी का पश्चाताप 40. श्री वशिष्ठजी का भाषण 41. श्री राम-भरतादि का संवाद 42. जनकजी का पहुँचना, कोल किरातादि की भेंट, सबका परस्पर मिलाप 43. कौसल्या सुनयना-संवाद, श्री सीताजी का शील 44. जनक-सुनयना संवाद, भरतजी की महिमा 45. जनक-वशिष्ठादि संवाद, इंद्र की चिंता, सरस्वती का इंद्र को समझाना 46. श्री राम-भरत संवाद 47. भरतजी का तीर्थ जल स्थापन तथा चित्रकूट भ्रमण 48. श्री राम-भरत-संवाद, पादुका प्रदान, भरतजी की बिदाई 49. भरतजी का अयोध्या लौटना, भरतजी द्वारा पादुका की स्थापना, नन्दिग्राम में निवास और श्री भरतजी के चरित्र श्रवण की महिमा

3. अरण्य-काण्ड 1. मंगलाचरण 2. जयंत की कुटिलता और फल प्राप्ति 3. अत्रि मिलन एवं स्तुति 4. श्री सीता-अनसूया मिलन और श्री सीताजी को अनसूयाजी का पतिव्रत धर्म कहना 5. श्री रामजी का आगे प्रस्थान, विराध वध और शरभंग प्रसंग 6. राक्षस वध की प्रतिज्ञा करना 7. सुतीक्ष्णजी का प्रेम, अगस्त्य मिलन, अगस्त्य संवाद, राम का दंडकवन प्रवेश, जटायु मिलन 8. पंचवटी निवास और श्री राम-लक्ष्मण संवाद 9. शूर्पणखा की कथा, शूर्पणखा का खरदूषण के पास जाना और खरदूषणादि का वध 10. शूर्पणखा का रावण के निकट जाना, श्री सीताजी का अग्नि प्रवेश और माया सीता 11. मारीच प्रसंग और स्वर्णमृग रूप में मारीच का मारा जाना, श्री सीताजी द्वारा लक्ष्मण को भेजना 12. श्री सीताहरण और श्री सीता विलाप 13. जटायु-रावण युद्ध, अशोक वाटिका में सीताजी को रखना 14. श्री रामजी का विलाप, जटायु का प्रसंग 15. कबन्ध उद्धार 16. शबरी पर कृपा, नवधा भक्ति उपदेश और पम्पासर की ओर प्रस्थान 17. नारद-राम संवाद 18. संतों के लक्षण और सत्संग भजन के लिए प्रेरणा

4. किष्किन्धा-काण्ड 1. मंगलाचरण 2. श्री रामजी से हनुमानजी का मिलना और श्री राम-सुग्रीव की मित्रता 3. सुग्रीव का दुःख सुनाना, बालि वध की प्रतिज्ञा, श्री रामजी का मित्र लक्षण वर्णन 4. सुग्रीव का वैराग्य 5. बालि-सुग्रीव युद्ध, बालि उद्धार 6. तारा का विलाप, तारा को श्री रामजी द्वारा उपदेश और सुग्रीव का राज्याभिषेक तथा अंगद को युवराजपद 7. वर्षा ऋतु वर्णन 8. शरद ऋतु वर्णन 9. श्री राम की सुग्रीव पर नाराजी, लक्ष्मणजी का कोप 10. सुग्रीव-राम संवाद और सीताजी की खोज के लिए बंदरों का प्रस्थान 11. गुफा में तपस्विनी के दर्शन 12. वानरों का समुद्र तट पर आना, सम्पाती से भेंट और बातचीत 13. समुद्र लाँघने का परामर्श, जाम्बवन्त का हनुमान्‌जी को बल याद दिलाकर उत्साहित करना 14. श्री राम-गुण का माहात्म्य

5. सुन्दर-काण्ड 1. मंगलाचरण 2. हनुमान्‌जी का लंका को प्रस्थान, सुरसा से भेंट, छाया पकड़ने वाली राक्षसी का वध 3. लंका वर्णन, लंकिनी वध, लंका में प्रवेश 4. हनुमान्‌-विभीषण संवाद 5. हनुमान्‌जी का अशोक वाटिका में सीताजी को देखकर दुःखी होना और रावण का सीताजी को भय दिखलाना 6. श्री सीता-त्रिजटा संवाद 7. श्री सीता-हनुमान्‌ संवाद 8. हनुमान्‌जी द्वारा अशोक वाटिका विध्वंस, अक्षय कुमार वध और मेघनाद का हनुमान्‌जी को नागपाश में बाँधकर सभा में ले जाना 9. हनुमान्‌-रावण संवाद 10. लंकादहन 11. लंका जलाने के बाद हनुमान्‌जी का सीताजी से विदा माँगना और चूड़ामणि पाना 12. समुद्र के इस पार आना, सबका लौटना, मधुवन प्रवेश, सुग्रीव मिलन, श्री राम-हनुमान्‌ संवाद 13. श्री रामजी का वानरों की सेना के साथ चलकर समुद्र तट पर पहुँचना 14. मंदोदरी-रावण संवाद 15. रावण को विभीषण का समझाना और विभीषण का अपमान 16. विभीषण का भगवान्‌ श्री रामजी की शरण के लिए प्रस्थान और शरण प्राप्ति 17. समुद्र पार करने के लिए विचार, रावणदूत शुक का आना और लक्ष्मणजी के पत्र को लेकर लौटना 18. दूत का रावण को समझाना और लक्ष्मणजी का पत्र देना 19. समुद्र पर श्री रामजी का क्रोध और समुद्र की विनती 20. श्री राम गुणगान की महिमा

6. लंका-काण्ड 1. मंगलाचरण 2. नल-नील द्वारा पुल बाँधना, श्री रामजी द्वारा श्री रामेश्वर की स्थापना 3. श्री रामजी का सेना सहित समुद्र पार उतरना, सुबेल पर्वत पर निवास, रावण की व्याकुलता 4. रावण को मन्दोदरी का समझाना, रावण-प्रहस्त संवाद 5. सुबेल पर श्री रामजी की झाँकी और चंद्रोदय वर्णन 6. श्री रामजी के बाण से रावण के मुकुट-छत्रादि का गिरना 7. मन्दोदरी का फिर रावण को समझाना और श्री राम की महिमा कहना 8. अंगदजी का लंका जाना और रावण की सभा में अंगद-रावण संवाद 9. रावण को पुनः मन्दोदरी का समझाना 10. अंगद-राम संवाद, युद्ध की तैयारी 11. युद्धारम्भ 12. माल्यवान का रावण को समझाना 13. लक्ष्मण-मेघनाद युद्ध, लक्ष्मणजी को शक्ति लगना 14. हनुमानजी का सुषेण वैद्य को लाना एवं संजीवनी के लिए जाना, कालनेमि-रावण संवाद, मकरी उद्धार, कालनेमि उद्धार 15. भरतजी के बाण से हनुमान्‌ का मूर्च्छित होना, भरत-हनुमान्‌ संवाद 16. श्री रामजी की प्रलापलीला, हनुमान्‌जी का लौटना, लक्ष्मणजी का उठ बैठना 17. रावण का कुम्भकर्ण को जगाना, कुम्भकर्ण का रावण को उपदेश और विभीषण-कुम्भकर्ण संवाद 18. कुम्भकर्ण युद्ध और उसकी परमगति 19. मेघनाद का युद्ध, रामजी का लीला से नागपाश में बँधना 20. मेघनाद यज्ञ विध्वंस, युद्ध और मेघनाद उद्धार 21. रावण का युद्ध के लिए प्रस्थान और श्री रामजी का विजयरथ तथा वानर-राक्षसों का युद्ध 22. लक्ष्मण-रावण युद्ध 23. रावण मूर्च्छा, रावण यज्ञ विध्वंस, राम-रावण युद्ध 24. इंद्र का श्री रामजी के लिए रथ भेजना, राम-रावण युद्ध 25. रावण का विभीषण पर शक्ति छोड़ना, रामजी का शक्ति को अपने ऊपर लेना, विभीषण-रावण युद्ध 26. रावण-हनुमान्‌ युद्ध, रावण का माया रचना, रामजी द्वारा माया नाश 27. घोर युद्ध, रावण की मूर्च्छा 28. त्रिजटा-सीता संवाद 29. रावण का मूर्च्छा टूटना, राम-रावण युद्ध, रावण वध, सर्वत्र जयध्वनि 30. मन्दोदरी-विलाप, रावण की अन्त्येष्टि क्रिया 31. विभीषण का राज्याभिषेक 32. हनुमान्‌जी का सीताजी को कुशल सुनाना, सीताजी का आगमन और अग्नि परीक्षा 33. देवताओं की स्तुति, इंद्र की अमृत वर्षा 34. विभीषण की प्रार्थना, श्री रामजी के द्वारा भरतजी की प्रेमदशा का वर्णन, शीघ्र अयोध्या पहुँचने का अनुरोध 35. विभीषण का वस्त्राभूषण बरसाना और वानर-भालुओं का उन्हें पहनना 36. पुष्पक विमान पर चढ़कर श्री सीता-रामजी का अवध के लिए प्रस्थान 37. श्री रामचरित्र की महिमा

7. उत्तर-काण्ड 1. मंगलाचरण 2. भरत विरह तथा भरत-हनुमान मिलन, अयोध्या में आनंद 3. श्री रामजी का स्वागत, भरत मिलाप, सबका मिलनानन्द 4. राम राज्याभिषेक, वेदस्तुति, शिवस्तुति 5. वानरों की और निषाद की विदाई 6. रामराज्य का वर्णन 7. पुत्रोत्पति, अयोध्याजी की रमणीयता, सनकादिका आगमन और संवाद 8. हनुमान्‌जी के द्वारा भरतजी का प्रश्न और श्री रामजी का उपदेश 9. श्री रामजी का प्रजा को उपदेश (श्री रामगीता), पुरवासियों की कृतज्ञता 10. श्री राम-वशिष्ठ संवाद, श्री रामजी का भाइयों सहित अमराई में जाना 11. नारदजी का आना और स्तुति करके ब्रह्मलोक को लौट जाना 12. शिव-पार्वती संवाद, गरुड़ मोह, गरुड़जी का काकभुशुण्डि से रामकथा और राम महिमा सुनना 13. काकभुशुण्डि का अपनी पूर्व जन्म कथा और कलि महिमा कहना 14. गुरुजी का अपमान एवं शिवजी के शाप की बात सुनना 15. रुद्राष्टक 16. गुरुजी का शिवजी से अपराध क्षमापन, शापानुग्रह और काकभुशुण्डि की आगे की कथा 17. काकभुशुण्डिजी का लोमशजी के पास जाना और शाप तथा अनुग्रह पाना 18. ज्ञान-भक्ति-निरुपण, ज्ञान-दीपक और भक्ति की महान्‌ महिमा 19. गरुड़जी के सात प्रश्न तथा काकभुशुण्डि के उत्तर 20. भजन महिमा 21. रामायण माहात्म्य, तुलसी विनय और फलस्तुति

रामायणजी की आरती गोस्वामी तुलसीदासजीकी संक्षिप्त जीवनी श्रीरामशलाका प्रश्नावली

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Critical Edition of Shri Ramcharitmanas

॥ परमारथ के कारने साधुन धरा सरीर ॥ saints incarnate in a body for the ultimate purpose — hindi couplet., the tulsi peeth edition of rāmacaritamānasa, introduction.

Bhārata and Sanātana Dharma have always been known for the culture of inquisitiveness (जिज्ञासा, Jijñāsā) and investigation (समीक्षण, Samīkṣaṇa). True knowledge is to be attained by starting with faith (श्रद्धा, Śraddhā) and belief (विश्वास, Viśvāsa), and then investigating the truth.

Critical Editing

Producing a critical edition (प्रामाणिक संस्करण, Prāmāṇika Saṃskaraṇa) of an ancient work which has several manuscripts and printed editions differing with each other is one such effort to investigate the truth. Over hundreds and thousands of years, scriptural works of Sanātana Dharma have been passed on from generation to generation in various geographic regions and traditions. Rāmacaritamānasa of Gosvāmī Tulasīdāsa is one such work, which has been the scripture of both the masses and the classes of Northern India for close to four hundred and fifty years. Many different editions of the Rāmacaritamānasa are in existence today, and they differ from each other at several places in the original text, number of verses, and orthographic and grammatical conventions. Some editions are quite popular while some others are less widely known, and yet some old manuscripts and out-of-print editions are known only to a select few.

Critical Editions in Sanātana Dharma

Many editors in the past have come up with critical editions of the Rāmacaritamānasa after months and years of meticulous research and thoughtful reflection, poring over scores of old manuscripts and printed editions. While discussing the numerous editions of the epic, Uday Bhanu Singh lists five editions with only the original text and five more editions with commentaries which have been edited by different scholars and published by various publication houses. The popular edition of Gita Press is also a critical edition, edited by Nanda Dulare Vajpayee in the year 1949. Critical editions have also been produced for the Vālmīki Rāmāyaṇa and the Mahābhārata by research institutes like the Maharaj Sayajirao University in Baroda and the Bhandarkar Oriental Research Institute in Pune. All these editions are works of research, compiled after herculean efforts and are worthy of scholarly review and critique as per the culture of inquisitiveness and investigation in Sanātana Dharma.

Tulsi Peeth Edition

Jagadguru Rāmabhadrācārya, henceforth referred to as Guruji, is one of the foremost authorities in the world on Tulasīdāsa and Rāmacaritamānasa today as recognized by authors like Ram Chandra Prasad and Lallan Prasad Vyas. His scholarship has been acclaimed in both India and abroad and he has done more than 5,000 recitations of Rāmacaritamānasa since his childhood. He is one of the rare scholars today who know the epic virtually by heart. After eight years of research and a study of 27 editions of the epic, Guruji came out with a critical edition, the Tulsi Peeth edition, of the Rāmacaritamānasa. This edition differs from the popular editions at several places, as Guruji has relied more on old editions than newer ones. Guruji says that he has not added anything from his side but only taken text from extant copies of the epic.

Opposition to Tulsi Peeth Edition

Ever since the publication of the Tulsi Peeth edition, Guruji has been the target of criticism from some people and sections of media. He has been accused of tampering with the mighty word and pen of Tulasīdāsa, and several newspapers and TV news channels have reported the issue in a sensationalistic manner. A false news item was reported on some news websites mentioning a fine being imposed on Guruji [sic], which was later retracted with a corrigendum being published. Some sadhus organized protests to prevent a Katha of Guruji from taking place in Ayodhya over the issue in November 2009, threatening self-immolation over the Tulsi Peeth edition. A letter from Guruji which expressed that he was pained at the events was presented in the press as being an apology for producing the Tulsi Peeth edition. A few websites even published personal attacks and defamatory articles on him, resorting to argumentum ad hominem instead of logic and deduction.

Guruji's reponse

Despite facing these obstacles, Guruji did not bow down to appease those opposing him. It is rightly said in the work नीतिशतकम् (Nītiśatakam) by the poet Bhartṛhari, that no matter if those proficient in matters of tact praise or criticize, the wise do not stray away from the just path. Guruji believes that his path is correct and his effort noble.

निन्दन्तु नीतिनिपुणाः यदि वा स्तुवन्तु लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् । अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ॥

nindantu nītinipuṇāḥ yadi vā stuvantu lakṣmīḥ samāviśatu gacchatu vā yatheṣṭam । adyaiva vā maraṇamastu yugāntare vā nyāyyātpathaḥ pravicalanti padaṃ na dhīrāḥ ॥

Whether those conversant with tact criticize or extol, whether the riches come in abundance or depart of their own accord, whether death occurs right on this day or after many years, the wise do not retract their steps from the path of rectitude.

An unnecessary court case

Unfortunately, matters became more serious when a magazine editor filed a writ petition in the Allahabad High Court requesting forfeiture and seizure of printed copies of the Tulsi Peeth edition on the grounds that it was tampering with Tulasīdāsa’s Rāmacaritamānasa, the divine word of Śiva, and hence it hurt the religious sentiments of Hindus. After the hearing, the Lucknow Bench of the Allahabad High Court dismissed the writ petition in its judgement passed in September 2011. The High Court fined the petitioner 20,000 rupees. It said in its ruling that the Tulsi Peeth edition is a work of scholarly research and in no way hurts the sentiments of Hindus. The original judgement of the court can be read here on the Allahabad High Court website . A copy of the judgement can be downloaded in PDF format here .

We hope that the court ruling satisfies some of the critics, as the review of the Rāmacaritamānasa by Madhusūdana Sarasvatī satisfied some opponents of Tulasīdāsa in Varanasi in the 16th century. For those who are still not convinced, they are invited to read the Tulsi Peeth critical edition, and debate any difference of text with other editions, including new popular editions and older editions, in a logical manner.

Some questions about Tulsi Peeth Edition

As in old times, these texts were copied and spread by scribes, several differences crept in due to difference in conventions of writing, interpolations, et cetera. An example is that some editions of Rāmacaritamānasa include an eighth Kāṇḍa, while Tulasīdāsa has himself stated that the work has only seven Sopānas.

सप्त प्रबन्ध सुभग सोपाना । ग्यान नयन निरखत मन माना ॥

sapta prabandha subhaga sopānā । gyāna nayana nirakhata mana mānā ॥

Due to these differences, critical editions have been produced for not only Rāmacaritamānasa but also for Vālmīki Rāmāyaṇa and the Mahābhārata.

Singh, Uday Bhanu (2008) (in Hindi). Tulasī Kāvya Mīmāṃsā. [Investigation into the poetry of Tulsidas]. New Delhi, India: Rajkamal Prakashan Pvt Ltd. pp. 92–93. ISBN 8171196861, 9788171196869.

Prasad, Ram Chandra (1999) [First published 1991]. Sri Ramacaritamanas: The Holy Lake Of The Acts Of Rama (Illustrated, reprint). Delhi, India: Motilal Banarsidass. p. xiv. ISBN 8120807626.

Vyas, Lallan Prasad, ed (1996). The Ramayana: Global View. Delhi, India: Har Anand Publications. p. 62. ISBN 9788124102442.

॥ सब सिधि तव दरसन अनुगामी ॥ Your Darśana is followed by all accomplishments - Rāmacaritamānasa, 1.343.5

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